आनुवांशिक उत्तराधिकार का खेल
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कांग्रेस में वंश परम्परा के अनुरूप सत्ता की कुंजी स्वयं इस परिवार के पास बहुत दिनों से है। कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के मोह में सिकुड़ती जा रही है। इस मोहपाश से निकलने की उसकी क्षमता निरंतर क्षीण होती जा रही है।
राजनाथ सिंह ‘सूर्य’; 07.06.2019
कांग्रेस में जो कुछ भी हो रहा है, उसकी संभावना पहले से ही थी। लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी ने अध्यक्ष पद से इस्तीफे का जो नाटक किया, उसका भी जल्द ही पटाक्षेप हो गया। राहुल गांधी को पद पर बने रहना चाहिए, इस तरह का बयान कुछेक कांग्रेसियों ने ही किया। इस निमित्त खुद उनकी मां सोनिया गांधी को आगे आना पड़ा। लोकसभा में कांग्रेस सांसदों की संख्या 44 से बढ़ाकर 52 करने के उनके प्रयासों की भी सोनिया गांधी ने मुक्त कंठ से सराहना की। यही नहीं, उन्होंने संविधान बचाने की जो गुहार लगायी है, उससे साबित होता है कि काल्पनिक खतरों से देश को आगाह कर कांग्रेस मोदी के खिलाफ गंभीर आरोप लगाने का अपना क्रम जारी रखेगी। लोकसभा चुनाव में मोदी के प्रति अनर्गल प्रचार से कांग्रेस को हार का धक्का लग चुका है लेकिन इसके बाद भी कांग्रेस के सत्ता में लौटने का दिवास्वप्न देखने का सिलसिला थमता दिख नहीं रहा है।
चालाकी भरा दांव
नेहरू-गांधी परिवार में आनुवांशिक उत्तराधिकार का खेल चल रहा है। हालांकि अब उसे मुंह की भी खानी पड़ रही है लेकिन इस परिवार की सेहत पर इसका असर पड़ता नजर नहीं आ रहा है। राहुल गांधी ने त्यागपत्र देने का चालाकी भरा दांव खेलकर गांधी परिवार से इतर अध्यक्ष के चयन की संभावनाओं पर पानी फेर दिया। कांग्रेस में दूसरा अध्यक्ष चुनने की मांग उठने से पहले ही दम तोड़ गयी। सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान राहुल गांधी को सौंप तो दी लेकिन उनके नेतृत्व में जिस तरह हर चुनाव में कांग्रेस का राजनीतिक पराभव हो रहा है, उसकी समीक्षा तो होनी ही चाहिए।
लोकसभा चुनाव की समीक्षा करने का दायित्व भी गांधी परिवार के बेहद करीबी ए.के.एंटनी को दिया गया है। कांग्रेस ने जनता का रुख फिर न समझ पाने की नासमझी की है और नवनिर्वाचित सदस्यों को संबोधित करते हुए सोनिया गांधी ने जिस प्रकार राहुल गांधी की प्रशंसा की, वह इस बात का संदेश है कि पार्टी भले ही सिमटती जाय लेकिन यह परिवार अपनी घृणात्मक अभिव्यक्ति से बाज नहीं आएगा। पहले चुनावी हार की संभावना को देखते हुए वह चिल्लाने लगती थी कि हार के लिए राहुल जिम्मेदार नहीं हैं लेकिन इस बार वैसा इसलिए नहीं हुआ। राहुल गांधी ने हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से मुक्त होने की पेशकश कर दी। जिस तरह कांग्रेस में पार्टी छोड़ने का अभियान चल रहा है, उससे स्पष्ट है कि भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का नारा अब सच होने जा रहा है। राहुल गांधी खुद देश से कांग्रेस को मुक्त करने पर आमादा हो गये हैं।
कांग्रेस में वंश परम्परा के अनुरूप सत्ता की कुंजी स्वयं इस परिवार के पास बहुत दिनों से है। कांग्रेस नेहरू-गांधी परिवार के मोह में सिकुड़ती जा रही है। इस मोहपाश से निकलने की उसकी क्षमता निरंतर क्षीण होती जा रही है। कांग्रेस को उसी समय धक्का लग गया था जब गठबंधन के नाम पर क्षेत्रीय प्रभावी दल कांग्रेस के साथ किसी भी प्रकार का समझौता करने के लिए राजी नहीं हुए। प्रियंका वाड्रा को मैदान में उतारकर स्वयं कांग्रेस ने ही राहुल गांधी की क्षमता और पात्रता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था जो सही साबित हुआ।
कांग्रेस की मजबूरी
परिवारवाद को झेलना कांग्रेस की मजबूरी बनी हुई है। कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में तेजी से विलुप्त होने की दिशा में बढ़ रही है। इस चुनाव में केवल एक राज्य केरल में उसे अच्छी सफलता मिली है जबकि आन्ध्र प्रदेश, तेलंगाना और तमिलनाडु में उसकी स्थिति खराब ही हुई है। उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान में उसकी असफलता का बोझ इतना बड़ा है कि राहुल गांधी उसे उठाने में असफल साबित हो रहे हैं। देश के विभिन्न भागों में कांग्रेस को छोड़ने का सिलसिला चल पड़ा है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि कांग्रेस राहुल गांधी के नेतृत्व में सुरक्षित नहीं है क्योंकि मां और बेटे दोनों ही घोटाले के मामले में जमानत पर हैं। एक कांग्रेसी नेता ने ठीक ही कहा है कि भाजपा की विजय में भाजपा कार्यकर्ताओं से अधिक योगदान राहुल गांधी और कांग्रेस का है। प्रत्येक मंचों पर राहुल के असफल होने का एक बहुत बड़ा कारण है, उनका झूठ आधारित मनगढ़ंत आरोप।